Thursday, April 30, 2020

PPE बाजार और वैश्विक एकजुटता की सीमायें

by RK Ranjan (Phd Candidate at the Valand Academy of Gotheburg University, Sweden)

कोरोनावायरस के संदर्भ में अगर कोई बात बार-बार दोहराई गयी है तो वह यह कि इस लड़ाई से अगर हमें जीतना है तो हमें एक साथ आना होगा. इस संकट से उबरने के लिए आपसी सहयोग कितना महत्वपूर्ण है, इसको डब्लू एच वो सहित हमारे देश के राजनेताओं ने भी रेखांकित किया है. भारतीय दृष्टिकोण से इस वैश्विक एकजुटता का प्रमाण तब स्पष्ट रूप से सामने आया जब भारत ने दुनिया के कई देशों को हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन (एच सी क्यू ) की आपूर्ति कराई. इस कदम के लिए कई देशों ने भारत के प्रति अपना आभार भी प्रकट किया है. यहां तक कि ब्राज़ील ने अपने आभार में भारत की तुलना हनुमान से कर दी जो कि रामायण के संजीवनी बूटी संस्करण की याद दिलाता है. भारत एच सी क्यू के निर्माण में अग्रणी देशों में से एक है. एच सी क्यू एक सस्ती दवा है जो मलेरिया के इलाज में काफी काम आता है. भारत सरकार के एच सी क्यू को निर्यात करने के निर्णय की काफी आलोचना भी हुई लेकिन सरकार का कहना है के देश में इस दवाई की प्रयाप्त उपलब्धता है. जब कोई संसाधन व्यापक तौर पर उपलब्ध हो तो उसको साझा करने में और वैश्विक सहयोग के बारे में सोचने में अक्सर कोई समस्या नहीं आती है. लेकिन क्या ये उदारता उन संस्धानों के लिए भी संभव है जो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध ना हो? 

भारत में कोरोनावायरस के संकट ने प्रवासी मजदूरों की पीड़ा को सामने लाया। इतना ही नहीं इस संकट ने यह भी साफ कर दिया कि आर्थिक और सामाजिक संसाधन के हिसाब से समाज के अलग-अलग वर्ग के लिए इस संकट के मायने भी अलग होंगे. इस तरह की असमानताएँ केवल देश के अंदर नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी है.  इसलिए जरुरी है कि हम इस पर भी ध्यान रखें कि ये वैश्विक असमानताएँ कोरोनावायरस के संदर्भ में किस प्रकार का रूप ले रही है. दुनिया के सभी 195 देश अपने स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पी पी ई) उपकरण खरीदने की होड़ में है. पी पी ई खरीदने की यह लड़ाई कहीं से भी बराबरी की लड़ाई नहीं है. भले ही वैश्विक एकजुटता और सहयोग सुनने में अच्छा लगे लेकिन जमीनी सच्चाई यही है की अब दरारें साफ दिखने लगी है. यहाँ तक की जर्मनी और नीदरलेंड जैसे अमीर देशों ने भी अपनी चिंताएं अभिव्यक्त करनी  शुरू कर दी है. पी पी ई के अमेरिकी डॉलर में खरीद-फरोख्त होने की वजह से अफ्रीका के कई देशों के लिए मुश्किलें और भी बढ़ गयी है. भारत को भी पी पी ई से जुड़ी सामग्री (जो कि प्रयाप्त मात्रा में भी और अपेक्षित गुणवत्ता वाली भी हो) हासिल करने में काफी दिक्कतें आ रही है. अमेरिका ने शिकायत की है कि उसकी कई कंपनियों को चीन में अपने कारखानों से निर्यात करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इन उभरते दरारों के बावजूद कुछ जगहों से अभी भी 'वैश्विक सहयोग' पर बल दिया जा रहा है. असमानतों की पृष्ठभूमि पर उपजी और सिंचित, सहयोग और साझाकरण की नीति हमारे अस्तित्व को खतरे में डाल सकती है. इसलिए बेहतर यही होगा की हम दुनिया के बाकी हिस्सों से अपनी उम्मीदें कम कर लें. 

पहले अपनी जरूरतों को पूरा करने का हवाला देते हुए कई देशों ने महत्वपूर्ण उपकरणों के निर्यात पर गंभीर प्रतिबंध लगाए हैं. वैश्विक एकजुटता को कम करने के साथ इन कदमों ने वैश्विक बाजार में उपकरणों के खरीद-फरोख्त पर भी काफी असर डाला है. ऐसे देश जिनके पास निर्माण की क्षमतायें सीमित हैं या तो वह वो बिलकुल ही निर्माण नहीं कर पर रहे या फिर जितना कर पा रहे हैं वो जरूरत के हिसाब से प्रयाप्त नहीं है. नतीजा ये है कि अपने जरूरतों को पूरा करने के लिए ऐसे सारे देश मुख्य  रूप से पूर्वी एशिया के कुछ देशों पर अब निर्भर हैं. न केवल इन देशों से आपूर्ति सीमित है, बल्कि अनिश्चित भी. अगर महामारी का संकट इन देशों में फिर से जोर पकड़ता है तो ये सीमित और अनिश्चित आपूर्ति भी तेजी से सिकुड़ जाएगी. 

माँग के दृष्टिकोण से देखा जाये तो जिन देशों में कोविड के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं उन्हें इन उपकरणों की तत्काल जरूरत है. लेकिन अनिश्चितता के इस दौर में कमोबेश सारे देश इन उपकरणों को इक्कठा करने में जुड़े हैं. लॉकडाउन हमेशा के लिए नहीं रह सकता और इसलिए लॉकडाउन के पश्चात कोविड के मामले सब जगह बढ़ने का खतरा काफी सच है. आवश्यक उपकरणों की मात्रा का अनुमान लगाने में कठिनाई मामले को और भी बदतर बना देती है. ऐसी पृष्टभूमि में जहाँ इतनी अनिश्चिततायें हो ये स्वभाविक है कि सारे देश किसी भी तरीके से इन उपकरणों को इकठ्ठा करने में लग गए हैं. इस होड़ को होर्डिंग कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.  

जरूरतों और अनिश्चितताओं से उपजी माँग और समवर्ती आपूर्ति की कमी ने चिकत्सा सम्बन्धी सामानों की खरीद-फरोख्त को एक जीरो-सम गेम बना दिया है. ऐसे खेल में एक खिलाड़ी के लिए जीतने का एकमात्र तरीका दूसरों को हराना होता है. परिकलपना कीजिये कि दो देशों में लोग मर रहे हैं, और दोनों के पास वे सभी पी पी ई नहीं हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता है। ऐसे हालत में देश A में जाने वाला हर PPE जो देश B को नहीं जाता है, वह देश B के चिकित्सा कर्मचारियों को जोखिम में डालता है.   इसलिए, देश बी के लिए यही तर्कसंगत है कि  वह हर संभव प्रयास करे अधिक से अधिक मात्रा में  पी पी ई  जुटाने का. और वह ऐसा देश A की कीमत पर ही कर सकता है. 

उपकरणों को तेजी से खरीदने के लिए दुनिया भर में सरकारों पर दबाव है। ऐसे हालत में बाजार खरीदने और बेचने वालों का सामान रूप से नहीं होता। बाजार बेचने वालों के मुट्ठी में हो जाता है. बोली लगाने के इस युद्ध में, खरीदार जो ज्यादा से ज्यादा कीमत देने की पेशकश कर सकते हैं, वो सभी के लिए बाजार की कीमतों को बढ़ा  देते हैं. यदि प्रत्येक देश और राज्य के पास सामान आर्थिक संसाधनों की मौजूदगी होती तो अलग बात थी. लेकिन मामला वह नहीं है। भारत जैसे देश के लिए, और जिस मात्रा में PPE की जरुरत है, कैलिफोर्निया या न्यूयॉर्क जैसे अमेरिकी राज्यों के खिलाफ लगातार बोली लगाने और जीतने के लिए संघर्ष करेगी, जो एक दूसरे के खिलाफ बोली भी लगा रहे हैं। नतीजन, कई देश या तो आवश्यक मात्रा से कम या अवांछित गुणवत्ता वाली PPE ही प्राप्त कर पायेगी. 

कीमत पर प्रतिस्पर्धा एकमात्र समस्या नहीं है जो हाल के दिनों में सामने आई है. जिन देशों के पास नगद में भुगतान करने की क्षमता है या फिर शक्तिशाली हैं वो सारी आपूर्ति अपनी तरफ कर लें यह एक वास्तविक और निरंतर खतरा बन रहेगा. अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों को लागू करना, जो कि सबसे अच्छे समय में मुश्किल है, वैश्विक संकट के बीच में लगभग असंभव हो जाता है। यदि स्पैनिश फ्लू की तरह कोविड लंबे समय तक रहता है, तो यह संभव है कि जिन देशों में अधिकांश आपूर्तिकर्ता आधारित हैं, वो चुनेंगे की दुनिया के कौन से देश कोविड की लड़ाई में जीतेंगे और कौन से देश हारेंगे. 

भारत जैसे देश के जरुरी है की वो तेज़ी से बदलते बाजार को पहचाने और समझे. हमें यह स्वीकार करना होगा कि कम समय में उच्च गुणवत्ता वाले उपकरण प्राप्त करने का एकमात्र तरीका यह है कि हम अमीर देशों द्वारा पेश की जा रही कीमत को मैच करें. लेकिन सरकार के सीमित संसाधनों को देखते हुए यह कहना उचित होगा कि हम  यह बहुत लंबे समय तक नहीं कर सकते. इसलिए, चिकित्सा उपकरणों के घरेलू उत्पादन को रफ़्तार देने की तत्काल आवश्यकता है. इस संदर्भ  में परमिट प्रदान करने की प्रक्रिया को तेज करना एक अहम कदम होगा. पंजाब जैसे कुछ राज्यों ने इस संबंध में कुछ अच्छे कदम लिए हैं और अन्य राज्यों को इस पर अमल करना चाहिए. गुणवत्ता की चिंता इस बात से दूर हो सकती ही कि ऐसे हालत में जब अंतर्राष्ट्रीय शिपमेंट पर प्रतिबन्ध है, घरेलू बाजार में राज्य सरकारें बड़े खरीददार के रूप में उभरेंगी जो ये सुनिश्चित करेगा कि बाजार स्वरुप  विक्रेता से ज्यादा ख़रीददार तय करे. खैर किसी भी परिस्तिथि में गुणवत्ता की चिंता परमिट देने के रास्ते में नहीं आनी चाहिए. इस दिशा में लिए गए  ठोस प्रयासों से मौजूदा कमी तो दूर होगी ही, साथ ही साथ इससे देश को फिस्कल इस्टीमुलुस भी मिलेगा. 

बढ़ती मांग और सीमित आपूर्ति से होने वाली परेशानियां वैश्विक एकजुटता के लिए एक बड़ी चुनौती बानी रहेगी. इसका अर्थ यही नहीं है को किसी भी तरह का वैश्विक सहयोग नहीं होगा लेकिन हमारी सभी समस्याओं के समाधान के लिए वैश्विक एकजुटता पर निर्भर होना नासमझी होगी। एक पुरानी कहावत के अनुसार, मदद करने वाले हाथ को खोजने का सबसे अच्छा स्थान आपके खुद की बांह है।

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